...

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मुश्किलें- मेरी दोस्त
ओए, जिन मुश्किलों की तू बात करता है न,
उनसे तो हमारा बड़ा पुराना नाता है।
रोज मिलने आती हैं वो,
अब तो यह सिलसिला दोस्ती-सा है।

अगर वो ख़ुद न आए तू उन्हें लाना पड़ता है,
आख़िर उनके बिना जिंदगी का मज़ा ही क्या है?

माना कि वे थोडी टेड़ी हैं,
मगर हम कौनसा सीधे हैं..
उलझनों में से दागे निकलने न हमें भी आते हैं।

एक दिन तो चिढ़ा कर गयी थी कि तू न मुझे पार कर पाएगा,
फिर मैंने भी कुछ ऐसा किया कि उसे मानना ही पड़ा,
उसका घमंड मेरे हौंसले के आगे झुक ही जाएगा।

अब वो बिचारी भी न थक ही गयी है,
क्योंकि उसके घमंड के आगे मेरी जीत जो खड़ी है।

वैसे थकी हुयी मुश्किल हमें अच्छी नहीं लगती,
क्योंकि उसमें हमें हराने की फिर हिम्मत ही नहीं रहती।
उस वक़्त थोडा रुकना पड़ता है,
उसके मज़बूत होने का इन्तेज़ार करना पड़ता है।

फिर जब वो मज़बूत हो जाती है,
तो उससे खेलने का बहुत मज़ा आता है।
साथ ही जिंदगी का नया पाठ भी पढ़ा जाता है।

बस यही कारण है उसकी और मेरी दोस्ती का
कि अंदर से हारे इस इंसान को वो जीतना सीखा जाती है।
© Musafir