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जीवन बनाम मृत्यु
ओशो को सिखाना तो चाहिए जीवन की कला, फिर वे मरने की बात क्यों सिखाते हैं?

✍🏼 ओशो अपनी उद्घोषणा "मैं मृत्यु सिखाता हूं !" के द्वारा जीवन की कला ही सिखाते हैं।

हालांकि वे सिखा नहीं पाए, क्यों कि- अनुभूति-परक होने से मृत्यु की कला स्वयं तो सीखी जा सकती‌ है, किन्तु किसी के भी द्वारा सिखाई नहीं जा सकती।

केवल हमारा अपना सजगता (awareness) से भरा जीवन ही हमें मृत्यु को सिखा सकता है, अन्य कोई नहीं।

मृत्यु की कला सीखने के लिए धर्म का दामन थामने वाला व्यक्ति ही वस्तुत: धार्मिक व्यक्ति है। शेष तो धमाली हैं।

मृत्यु की यही कला आत्मसात् करने के लिए व्यक्ति को आध्यात्मिक साधना की आग से गुजरना पड़ता है।

मृत्यु की कला वेद, उपनिषद्, गीता, कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब बाइबल प्रभृति आध्यात्मिक ग्रन्थों का निकष व निर्देश है।

और यही मानव-जीवन का गंतव्य भी है।

जो मृत्यु को गले लगा ले, जीवन उसी का शुरू होता है।

बाकी तो नियति द्वारा नियंत्रित शतरंज के मोहरे हैं।

मृत्यु को गले‌ लगाने का अर्थ आत्महत्या करना नहीं, वरंच चेतना को अपने‌ व्यक्तित्व से मुक्त कर लेना है।

यही घटना, मृत्यु को सीख लेना‌ कही जाती है।

मृत्यु को सीखने से पूर्व हम जीवन नहीं जी रहे होते, अपरंघ जीवन ही हमें यंत्रवत् जीता है।

मृत्यु की कला सीखने पर ही हम अपने वास्तविक जीवन को जीने की कला सीख पाते हैं।

यही अंतरिम आध्यात्मिक-ज्ञान है। और मार्ग ध्यान है।

मृत्यु को सीखे बिना, जीवन की कला सीखना असंभव है। मृत्यु को सीखे बिना, जीवन एक छलावा है।

इसप्रकार मृत्यु को सीखने की परिभाषा यह होगी:

"अपने मिथ्या अहम् (False Ego) से निजात पाना"

और तब हमें जीवन जीने की कला‌ आ जाती है।

यही जीवन मुक्ति कही जाती है। यही है फ़ना हो जाना !

जीवन्मुक्त मनुष्य पराचेतन के आयाम में प्रविष्ट हो जाता है। जो मानव-जाति की अगली उद्विविकासीय स्थिति है।

जीवन मुक्त मनुष्य को अपने अब तक के जिए जीवन पर‌, हंसी आ जाती है।

किन्तु इसके साथ ही साथ जीवन में अब तक की गई मूढ़ताओं और पग पग मिली हताशाओं को धन्यवाद देने का मन भी होता है‌।

र्क्योंकि उस अंधेरी सुरंग से गुजरे बिना प्रकाश नहीं मिलता है।