...

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ग़ज़ल
घूँट दर घूँट ज़हर पीना है।
और ये हुक्म है कि जीना है।

कोई धागा है न सुई है पास,
ज़ख्म फ़िर भी हमें ही सीना है।

दर्द की धूप है कड़ी इतनी,
सूखता ही नहीं पसीना है।

खूबसूरत बहुत हैं मंज़र पर,
जो मुसाफ़िर है वो ना -बीना है।

बात सुनने का बात कहने का,
ना सलीक़ा है ना क़रीना है।

मैकदे बंद है साकी ग़ायब,
सबके हाथों में खाली मीना है।

नाखुदा को भी ख़ुद नहीं मालूम,
किस तरफ़ जा रहा सफीना है।

© इन्दु