...

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खिंच चुके हैं बाण
यूं तो सारी दुनियां साथ मेरे
मेरे ही सहभागी अंश और खास है

क्यूं सिसकता हूं दर्द पे उनको देख देख
खुद पे खिंचता देख रहा उन लकीरों का वेग

ध्वंस के तूफान का ये मचलना
विद्रोह के तेवरों का यूं भभकना

खामोशियों के दायरे से जैसे
चाहता है कोई निकलना

तबाह न होने दूंगा अब और कोई जिंदगी
प्रण कर चुका हूं अब एक रण का

धनूष की डोरियां कानों तक खिंच चुकी है
तय है दुष्टों के अभिमानी मस्तक का कट गिरना
© सुशील पवार