...

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यथार्थ के धरातल
जब लिखने की समझ आ जाए
बाजियां पलटने लगती
आग जब सुलग जाए
रोटियां बड़े आराम से सिंकती हैं

कमजोर कदमों की आहट
दीनता भरी नजर क्या कहीं जीत पाती है
तलवार की धार जो प्रचंड न हो
गले कब उड़ाती है

भोथरी बातों से कब दिल बहलता है
रस का श्रृंगार जो न हो वक्त कब संवरता है
अमरता का वरदान कविताओं को तब ही मिलता है
गले से मदमस्त प्याला सार्थकता का उतरता है

दो शब्द कह दो आज मुझे पढ़ के
उतरते हैं क्या यह तुम्हारे दिल में
साहित्य संरचना अमर धरा ढुंढती है
व्यापक होती जाती है अपनों से मिल के

पन्ने के हर लफ्ज़ से रूबरू होता है
रूतबा तुम्हारा ही है जो कहता है
महसूस करो भाव भरे मेरे स्पंदन
भुला दोगे अस्तित्व और संघर्ष की बातें

तब जब यथार्थ के धरातल छू जाओगे
हर शब्द दीप बन बन जल जाएगा
आई हो जैसे दीवाली की जगमग कतारों सा
खिलते कमल सा ये दिल आंनद विभोर मुस्कराएगा

© सुशील पवार