...

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कुछ कहना हैं...
कुछ कहना हैं
हाँ कुछ तो जरूर कहना हैं
मगर यह लफ्ज क्यूँ लुकाछिपी खेल जाते हैं
जब मुझे इनकी सबसे ज्यादा जरुरत होती हैं
अब ईसे मैं सताना कहूँ
या फिर सबक सिखाना
यह बिछड़े हुए से शब्द
कोई नादानी कर रहे हैं
या मुझे अपनी विरानियों में
तन्हाई के हवाले छोड़ चुके हैं

जिन्हे मैं अपना हमदर्द कहती हूँ
क्या अब वह अल्फाज़ भी मेरे हक़ में ना रहे

या शायद मैं ही शब्दों कि अटल साधना में व्यस्त हूँ
इसलिए खामोश हैं यह लेखनी
इन पन्नों कि कगार पर फिर से
चहक उठेगी शब्दों कि किलकारी
वह शब्दपंखुड़ियां फिर से खिल उठेंगी
© Shravani Sul