...

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महत्ता रूपय की
क़ीमत रूपय की हर रिश्तों से बड़ी जब होने लगी
जीवित इन्सान की जिंदगी किश्तो में यूँ चूकने लगी

माँ-बाप,भाई-बहन,घर भरा सारा पूरा परिवारों से
तब कीमत रूपय की और ज़ेहन में खटकने लगी

परेशानियाँ घटने को तो और तेजी से पाँव पसारने लगी
मिठास रिश्ते की तब कड़वाहट की झलक दिखाने लगी

हुआ करतीं थी बैरी जो कभी दुनियाँ खुश देख कर हमें
आज बैर अपने व अपनों के बीच ही दूरियाँ बढ़ाने लगी

निश्चिंत रहा करता था मैं और निश्चिंत हुआ करता था मन मेरा
लेकिन अब अनिश्चितता मेरे तन-मन पे अपना नियंत्रण करने लगी

महत्ता जब अपने,अपनो से ज्यादा रूपय को देने लगें
तब सांसे भी हमारी हमपे अपना प्रतिबंध लगाने लगी