...

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बिसरी सी नजरें
क्यूं ताकती है मुझको वो मासूम सी नजरें
रह रहकर उठती गिरती पलकों में आंसू भरकर
पुकारती दिन स्वरों से मुझको
गोया मैं ही थी जैसे दुनिया उसकी
नादान दुनिया से अंजान
देह नवजात, करें भी क्या
बेबसी जो बांध रखे
वक्त की जरूरत उसे
सहलाऊं जरा उसे कि दुःख भुल सके
बहलाऊं खेल खिलौनों से कि कुछ खिल सके
मैं भटकती चलती थी कभी जिन राहों में
आज चलते हो सहमें झिझकते तुम भी
क्या करें दुनिया है जीवन और जहर
सबकुछ पढ़ते चलें
जो वो प्रकृति पढ़ा रही हैं अभी....।


© सुशील पवार