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निरंतरता
जिंदगी में चलते-चलते
खो जाती हूं मैं बीच-बीच में
इसलिए कोई काम मेरा होता नहीं
चाहत हैं हज़ार परंतु निरंतरता मुझ से होती नहीं
कोई नहीं हैं जिमेदार मेरी असफलताओं का
मैं खुद ही झंझट हूं अपनी सफलताओं का
क्यों लगाऊ इल्जाम दूसरों पर जब मैं खुद ही बनी हूं अपनी दुश्मन
हर समय टटोलती हूं अपना मन
मन से आवाज यही आती है —
" खुद की निरंतरता की कमी से तेरी जिंदगी ही बन गई है उलझन "!
— अंकिता द्विवेदी त्रिपाठी —
© Anki
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