...

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दर्पण की माया
दर्पण में देख प्रतिबिंब को अपने, पक्षी खुद से लड़ता है!
पक्षी का दोष नहीं इसमें, दर्पण की यह सब माया है!!

पक्षी की हर चोट में दर्पण, उसको ही चोट लगाता है!
दर्पण की इस माया को पक्षी, हाय क्यों न समझ पाया है!!

माया के पाश में घिरा पक्षी, व्याकुल अधिक हो जाता है!
हरकत देख पक्षी की दर्पण, उतना ही उसे खिजाता है!!

जितना पक्षी व्याकुल होता, प्रतिबिंब को उतना ही घात लगाता है!
दुःख को अपने भूलकर पक्षी, लहू को अपने बहाता है!!

एक समय ऐसा आता, पक्षी मुर्झाकर गिर जाता है!
समझ आती यह भूल उसको, वह ख़ुद को ही चोट लगाता है!!

आधे खुले नयनों से पक्षी, दर्पण को देखे जाता है!
अपने ही प्रतिबिंब को गिरे हुए, दर्पण में वह पाता है!!

अब पछताने से क्या मिलता, पक्षी समझ यह जाता है!
कुछ क्षण मुरझाया पक्षी, विचारों में खो जाता है!!

हर माया में उलझा पक्षी, माया मुक्त हो जाता है!
घायल अवस्था में ही पक्षी, परों को फैला उड़ जाता है!!

© Vishnukashyapji