...

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*"मेनटेन नहीं रह पाती हैं"*

पूरा घर समेटते समेटते ,
खुद बिखर सी जाती हैं
हां,अब वो स्त्रियां सहजता से
नहीं रह पाती हैं,
आधी रात में भी ,
दूध के भगौने से बतियाती हैं,
एक आवाज पर,
गहरी नींद छोड़ आती हैं,
टिफिन के पराठों संग,
स्कूल पहुँच जाती हैं,
हां ,अब वो स्त्रियां सहजता से
नहीं रह पाती हैं।
कमर दर्द, पीठ दर्द,
हस के टाल जाती हैं,
जूड़े में उलझी हुई,
लटों को छुपाती हैं
हल्दी लगे हाथों को,
साड़ी में छुपाती हैं
हां, अब वो स्त्रियां सहजता से
नहीं रह पाती हैं
सुबह शाम रोटियों में,
प्यार बेल जाती हैं,
बारिश में भीग ,
सूखे कपड़ो को बचाती हैं
अपनी फटी एड़ियों पे,
साड़ी लटकाती हैं,
हां ,अब वो स्त्रियां सहजता से
नहीं रह पाती हैं।
अपनी ख्वाइशों से,
ख्वाब में ही मिल आती हैं
हर किरदार,में वो,
फिट बैठ जाती हैं
कभी प्रिंसिपल,
कभी बहु बन जाती हैं
हां अब वो स्त्रियां सहजता से
नहीं रह पाती हैं।


© ठाकुर बाई सा