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"ज़ुबान की तल्ख़ी"
ज़ुबान की तल्ख़ी दिखे सभी को,
मन की व्यथा न कोई जाने..!
व्यवहार के विपरीत हुए कभी जो,
फिर हम ख़ुद से रहे बेगाने..!
अब चुभते रहे नज़रों में सभी की,
चहेते ख़त्म दौर सुहाने..!
बढ़ती रही उम्र की सीमा,
जन्मों के बँधन हुए अफ़साने..!
ज़ाहिर है यूँ माहिर महोदय,
षणयंत्रकारी सोच के सब दीवाने..!
ज़द्दोज़हद ज़िन्दगी की ज़ालिम,
मरते मरते गुज़रे ज़माने..!
© SHIVA KANT
मन की व्यथा न कोई जाने..!
व्यवहार के विपरीत हुए कभी जो,
फिर हम ख़ुद से रहे बेगाने..!
अब चुभते रहे नज़रों में सभी की,
चहेते ख़त्म दौर सुहाने..!
बढ़ती रही उम्र की सीमा,
जन्मों के बँधन हुए अफ़साने..!
ज़ाहिर है यूँ माहिर महोदय,
षणयंत्रकारी सोच के सब दीवाने..!
ज़द्दोज़हद ज़िन्दगी की ज़ालिम,
मरते मरते गुज़रे ज़माने..!
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