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बंटवारा... किस्सा कुछ हिस्सों का.
बंटवारा... किस्सा कुछ हिस्सों का.

लकीरें जो किताबों पे कमाल कर देती हैं
जमीनों पे खींचो तो हिस्से कर देती हैं
भरे फल सा दिखने वाले उस घर को ज़रा गौर से देखो
लकीरों के बाद अधूरा, बेजान और बंजर सा दिखते हैं

कभी एक ही बगीचे के फूल जैसे रहते थे हम
हर तरह के सुख और दुख बांट लेते थे हम
मज़हब जैसे कोई शब्द भी होता है पता न था, क्युकी
दिवाली के साथ ईद की नमाज भी पढ़ते थे हम

जब घुसपैठ हुई घर में तो जमकर लड़े थे हम
इन्कलाब के नारों से हर जगह गूंज उठे थे हम
देश के लिए सुखदेव , राजगुरु और भगत भी बने थे हम
एक होकर ही तो सैलाब बनकर आजाद हुए थे हम

पर ये आजादी हमें कुछ रास नहीं आई है
आज मुझसे लड़ता, मेरे ही बगीचे का भाई है
हाथों में ना जाने कितने हत्यार सजाए हैं
हमने अपने ही घरों को खांख बनाए हैं

ना जाने कितनी चिता जली और कितने दफनाए हैं
बेकसूर होकर भी हमने शहादत को गले लगाए है
डर और फिक्र को छुपा कर, हम सरहद पर आए हैं
अपने ही भाइयों है खून बहा कर हमने तिरंगा लहराए हैं

इतिहास पढ़कर भी हम नही सीख पाए हैं
तर्राकी तो सीख ली हमने फिर भी अनपढ़ कहलाए हैं
अंतरिक्ष पर जाना तो सीख लिया है हमें, लेकिन
सरहदों पर खींची उस लेकर मिटा नही पाए हम...
उस बगीचे को फिर से हरा भरा नहीं कर पाए हम...

75 years of incomplete Independence Day.
-Aezz Khan.
© Aezz खान...