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सुबह का स्वप्न !🌿
स्वप्न सुबह के होते पूरे,
ऐसा अकसर ही सुना है।
आज प्रात की शुभ बेला,
मैने कुछ अच्छा ही देखा है।
किंतु कहीं ये व्यंग न हो,
जीवन करता परिहास न हो।
मैं जागूं रातों में सुबह सोऊं,
दिल में कोई ऐसी आश न हो।
या हो प्रेरित करने का कोई उद्देश्य,
या मेरा और बिखरना अभी हो शेष।
न जाने क्या भोर के पंकज में सोया है।
क्या और अभी कुछ खोने को,
सब कुछ ही तो खोया है।
खैर स्वप्न था उम्मीद भरा पर,
मैं कोई उम्मीद नहीं पालूंगा।
मन को फिर से डांट डपट कर, समझा लूंगा।
© Prashant Dixit

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