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तेरी नायब सी बातें।
समझ आती नहीं मुझको ये ख्वाब सी बातें।
दो लफ्जों में छुपी तेरी ये किताब सी बातें।
आसमां में मचलती ये तेरी महताब सी बातें।
कभी बन कर कहर टूटें ये अज़ाब सी बातें।
मुझे मदहोश कर देती तेरी शराब सी बातें।
करती हैं सितम मुझपर बन अंगार सी बातें।
कभी एहसान कर देती हैं अहबाब सी बातें।
चुभती हैं कभी बन कर ये खार सी बातें।
दिल ओ जां में महकती है गुलाब सी बातें।
शोला, कभी शबनम, कभी शादाब सी बातें।
बात करने को रहती हैं बड़ी बेताब सी बातें।
बिगड़ती बनती पल भर में ये हबाब सी बातें।
समझ आती नहीं मुझको तेरी नायब सी बातें।
© Prashant Dixit
दो लफ्जों में छुपी तेरी ये किताब सी बातें।
आसमां में मचलती ये तेरी महताब सी बातें।
कभी बन कर कहर टूटें ये अज़ाब सी बातें।
मुझे मदहोश कर देती तेरी शराब सी बातें।
करती हैं सितम मुझपर बन अंगार सी बातें।
कभी एहसान कर देती हैं अहबाब सी बातें।
चुभती हैं कभी बन कर ये खार सी बातें।
दिल ओ जां में महकती है गुलाब सी बातें।
शोला, कभी शबनम, कभी शादाब सी बातें।
बात करने को रहती हैं बड़ी बेताब सी बातें।
बिगड़ती बनती पल भर में ये हबाब सी बातें।
समझ आती नहीं मुझको तेरी नायब सी बातें।
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