...

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यक़ीन की फ़सलें
विश्वास का दर्पण,
जब कभी भी चरमराये,
नज़र सब एक से फिर आयें।

करें चाहे जो अर्पण,
हों भले अपने या पराये,
टूटी आस्था,नहीं जोड़ पायें।

सीखिए करना तर्पण,
यह धर्मार्थ बस समझाये,
बिखरे भरोसे भी जीत जायें।

अपना करके समर्पण,
इंसानियत बिगुल बजाये,
आ,यक़ीन की फसलें उगायें।

© Navneet Gill