...

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Ghum...!?
परायो से क्या शिकवा करूं
घाव तो अपने ज्यादा गहरे देते हैं
परायो से तो छिपा भी लूं अक्षु
मेरे फेरब तो अपनों के साथ बुना है परायो से क्या ही उम्मीद रखूं जब उम्मीद की छांव से कोई उम्मीद नहीं है परायो से क्या ही पता पूछूं जब अपने ही लापता हैं
भटकते भटकते
खुद की गलियों में गुम हुं...
© HeerWrites