...

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मै कुछ नहीं।
"राधा रमण"

मै भस्म हु।
विध्वंश हु।
अपनी बनायी चकरव्यू का मै ही अभिमन्यु हु।
इस घोर कालि रात मे, जोर की बेचैनी लिए, सन्नाटे की, आहट हु।
हु तो मै कुछ भी नहीं।
है समेटे हु मै, अपनी, दामनो की धुरिया।
कुछ क्यास है, है कुछ अपनी ही मजबूरिया।
कुछ कस्तियो का है दिया, कुछ कर्मो की सेखीया।
मै आँच हु, अपनी ही बनायी लौह से जली है मेरी बेड़िया।
असहज हिमालय से है, इस काल खण्ड की अटखेलिया।
समेट इस जलन मे मै करता हु, मुहबोलिया।
मै शोर हु सहर का।
गाँव की बोलिया।
मस्त हु, मै पस्त हु।
सब्र मे बेसब्र हु।
हु मै हश्रतो की एड़िया।
कुछ बाध बाधे मन मेरा।
कुछ अंश की बेचैनिया।
कुछ बह चला है इस डगर मे।
राह की हथेलिया।
कुछ छुट गए, कुछ छोड़ गए।
कुछ बाट दी, कुछ काट दी।
कुछ हु लिए साबुत भी।
है अपनी ही पहेलिया।