...

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खुदगर्ज....
कभी-कभी सोचती हूं के जो इंसान मेरे बग़ैर 2 घंटे भी नहीं रह पाता वो मेरे बग़ैर ताउम्र कैसे रहेगा? कैसे मैनेज करेगा अपनी जिंदगी मेरे बग़ैर ? क्या इतना आसान होता है किसी को जाने देना.. या फिर खुद से उसको छोड़ देना..

ऐसे तमाम सवाल मेरे ज़ेहन में गूंजते रहते हैं, हम अक्सर जिन लोगों का जाना बर्दाश्त नहीं कर पाते वे लोग हमारी जिंदगी से सबसे पहले रुख़सती क्यों ले लेते हैं? क्या रिश्ते सच में इतने अज़ाब होते हैं कि उनको ताउम्र के लिए तन्हां कर दिया जाए?

तुमसे बिछड़ते वक़्त तो मुझे कभी ऐसा नहीं लगा क्योंकि शायद हमारा रिश्ता उतना मुकम्मल हो नहीं पाया, जितना कि हो सकता था!

बार-बार किसी का जाना देख सकना अब मेरे बस की बात नहीं पर मेरे पास इसके अलावा कोई और रास्ता भी तो नहीं ! आख़िर किसी इंसान का हमारी ज़िंदगी से चले जाना हम खुद तय नहीं कर सकते!

इतने सवाल हैं ज़ेहन में कि मैं खुद उलझ सी गई हूँ क्या तुम अब एक बार भी आकर मेरी उलझनों को सुलझा नहीं सकते ? क्या मैं इतनी ग़ैर हो गई तुम्हारे लिए?

या मैं मान लूं कि इंसान वाकई इतने ही ज्यादा खुदगर्ज होते हैं!

मैं समझती हूँ कि आख़िर में सब कुछ जाने देने का नाम ही ज़िंदगी है, वक्त रहते समझना ज़रूरी है!

खैर तुमको ढेर सारी मोहब्बत...
~P.s