...

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परीचय की गांठ॥
यों ही कुछ मुसकुराकर तुमने
परिचय की यह गाँठ लगा दी।
था पथ पर मैं भूला-भूला फूल
उपेक्षित कोई फूला जाने कौन लहर थी
उस दिन तुमने अपनी याद जगा दी,
कभी-कभी यों हो जाता है।
गीत कहीं कोई गाता है
गूॅज किसी उर में उठती है
तुमने वही धार उमगा दी।
जड़ता है जीवन की पीड़ा
निस्तरंम पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अनजाने वह पीड़ा
छवि के सर से दूर भगा दी।
© राज