...

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मुस्कान नहीं हारो तुम।
हों उम्मीदों के दिए बुझ गए सारे।
बेमतलब हों आसमान के टूटे तारे।
छत अंबर की गिरे धरा पर ढह कर।
वसुधा फट जाए व्यथा निज कह कर।
स्थिर आंखें, सौ चित में उठे बवंडर।
खाए प्राणों को कोई भीतर रह कर।
पथ के पत्थर पर अघात नहीं मारो तुम।
पहाड़ दुखों का टूटे पर मुस्कान नहीं हारो तुम।
थके हुए कंधों पर कोई परिवार बिठाए।
भंवर से लड़ने को हाथों में पतवार उठाए।
सारी विपदा बाधाएं मृत उस क्षण हो जाएं।
तज कायरता मनुज का साहस जब जग जाए।
जब लिखने बैठो पीर, शौर्य लिख जाए।
किंचित भी अश्रु भला फिर आंखो में दिख जाए।
जो भय हो सागर में नौका नहीं उतारो तुम।
पहाड़ दुखों का टूटे पर मुस्कान नहीं हारो तुम।
© Prashant Dixit