...

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ख्वाहिशें
ख्वाहिशों से भरी कहानियाँ थी मुझमें
सोते जागते उन्हीं को सोचा करती थी
पर जब अपने दिल के घर से
समझदारी की खिड़की खोली
तो हकीकत नज़र आया
फिर...
फिर क्या...
एक- एक ख्वाहिशों को कम करती गयी
हाँ.. अब बोझ हल्का हो गया है
वो ख्वाबों से भरी कहानियाँ तो नहीं है मुझमें
पर जो बचे हैं वो ख्वाब नहीं जरूरतें हैं मेरी
बदलता वक़्त हमें भी बदल देता है
खामोश रहना पर ,खुश दिखना
लोगों से दूर रहना, फिर भी साथ होने की उम्मीद करना
खुद के साथ रहना, मगर खुद को ढूँढना
मैंने दिल से पूछा, कई दफ़ा पूछा..
क्या चाहिए तुम्हें?
हर बार दिल ने यही कहा- सुकून
पर जरूरतें कहाँ जीने देती हैं सुकूँ से
ये घर के सभी हँसते -मुस्कुराते चेहरों को ,
बदल देती है उदासियों में
और सुकून की तलाश मे बदल लेते हैं अपने आशियाने
इन सबकी तलाश करते- करते,
हम कहीं गुम जाते हैं।