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तुम मेरी ज़िन्दगी का पहला मौसम थे
हमेशा की तरह इस बार भी मैं अक्टूबर का बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी। जिस रोज़ अक्टूबर के सूरज की पहली किरण मेरे कमरे की खिड़की से कूद अन्दर आयी, उस रोज़ जैसे मेरा मन मेरे मन में लौट आया। खिड़की पर लटके परदे पछुआ हवा से दो दो हाथ करने में व्यस्त रहे और घर के सामने से गुज़रती सड़क के उस पार लगे पेड़ के सूखे पत्ते कमरे में आ गिरे। अजीब है ना, जिस ओर से सूरज की किरणें आयी हों उसी ओर से पछुआ हवा में बहता पत्ता कैसे आ सकता है? ये सवाल शायद किसी के भी मन में उमड़ पड़े मगर मेरे मन के लिए इसमें कुछ अलग नहीं था।

मैंने हमेशा ही ऐसा जीवन जिया था, जहाँ कई परतों में लिपटी मैं तपन और घुटन से जूझती रही, वहीं मेरी ज़िन्दगी ने मेरे प्रति हमेशा सर्द रुख़ अपनाये रखा। इस तरह मेरे आस पास कभी तापमान बहुत अधिक या बहुत कम नहीं हुआ और इसीलिए मैंने किसी मौसम को नहीं जिया। मौसम की प्रवृत्ति होती परिवर्तन लेकिन मेरे जीवन में सब जैसे ठहरा हुआ था और समय फिसलकर अतीत हुआ जा रहा था। फिर एक दिन मेरे जीवन में तुम आये।

तुम्हारी आँखों में देखती हूँ तो आज भी वही सवाल एक टक मुझे घूरता है, कि जिस वक़्त तुम मुझे छोड़कर आगे बढ़ रहे थे तो मेरे चेहरे पर दुख की शिकन कहाँ दफ़्न थीं। तुम उस समय भी हमेशा की तरह मेरी सारी क़ायनात से ताकतवर रहे। मुझे छोड़कर भी शिक़ायत कर पाने के क़ाबिल रहे। इश्क़ ने तुम पर ख़ास इनायत की। जिससे तुम महरूम रहे वो था तुम्हारे जाने पर भी मुस्कुराहट से भरे मेरे चेहरे को देख मेरे मन को पढ़ पाने का हुनर।

उस रोज़ मेरे चेहरे पर निराशा के निशान सिर्फ़ इसलिए नहीं थे, क्योंकि तुम मेरी ज़िन्दगी का पहला मौसम थे, और मौसम का बदलना ही तो उसे मौसम बनाता है। जब तुम मुझे पहली बार मिले थे तो मुझे हवा ने पहली बार ऐसे छुआ था कि मुझे एहसास हुआ कि हवा से सिर्फ साँसें नहीं चलती जज़्बात भी इधर से उधर सफ़र करते हैं। पहली बार मन में शान्ति और शीतलता थी और जिन्दग़ी की शाख से पुराने अनुभव टूटकर कुछ नया होने की उम्मीद जागने लगी थी। दरअसल, तुम्हारे बदल जाने पर भी मुझे तुमसे ज़रा भी शिक़ायत नहीं थी क्यूँकि तुम मेरी ज़िन्दगी का पहला मौसम थे।

~सीरत मसिपण्य
© Seerat Masipanya


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