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बेटियां
कितने ज़ुल्म और दर्द सहती हैं, परियों के देश से ये बेटियाँ आती हैं
कोमल और निर्मल हृदय लिए, हमारे घर आँगन को महका जाती हैं
हमारे सारे दुःख दर्द तकलीफों को बलाओं में अपने संग ले जाती हैं
बाबुल के घर से विदा होकर, मायका बिल्कुल सूना कर जाती हैं

कितने ही ज़ुल्म और दर्द ससुराल में सहती हैं, जो सुने वो रोने लगता है
ज़ुल्म की दास्तां पुरानी होती जाती है और सहते सहते दर्द कम लगता है
ज़ुल्म-ओ-सितम की दास्तां ना पढ़ सकोगे ना कभी सहन कर सकोगे
जाने ये कड़ियाँ कहाँ जाकर रुक कर टूटेंगी या शायद कभी वो थकेंगे

हर लम्हा इंतेहा की हद तक सहती हैं, कभी उफ़ तक ना करती हैं
बहुत अनमोल और प्यारी होती हैं, ग़म सह कर भी मुस्कुराया करती हैं
हँसते हुए हर ज़ुल्म सहती हैं, चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देती हैं
शायद सहने से ख़तम हों जाएं, दर्द सहते सहते बेज़ुबान हो जाती हैं

मिलने को माता पिता से तरसती हैं, सीने पर अपने पत्थर रख लेती हैं
दोनों कुलों की लाज रखते हुए, हर सितम मुस्कुरा कर सह लेती हैं
हृदय के किसी कोने में खुशियों को गठरी में संभाल कर रख देती हैं
ससुराल में पाँव रखते ही, खुशनसीब से मनहूस कैसे हो जाती हैं

अपनी ही बेटी, ज़ुल्म दूसरों के सहती है, हृदय चीत्कार कर उठता है
मग़र उनका दिल कभी नहीं पिघलता, ये ज़ुल्म और बढ़ता जाता है
जब कोई नहीं होता, उन्हें संभालने वाला ख़ुद ही हिम्मत होती हैं
तकिया में मुँह छिपा, दीवारों से लिपट बिन आवाज़ सिसक कर रोती हैं

ज़ुल्म के कोई सबब नहीं होते मग़र दर्द सहने की अजब इंतेहा होती है
दुःखी बेटी के साथ, माता पिता की आत्मा भी दिल में संग रोती है
जानता है पिता कि शायद ज़ुल्म और दर्द की दास्तां शुरू होने वाली है
इसलिए हर पिता से हँस कर बेटी की विदाई कभी नहीं होने वाली है

लोगों को क्या और कितना चाहिए, मन की एक बार क्यों नहीं बता देते
कब तक चलती रहेंगी ये दर्द की दास्तानें, क्यों नहीं अब इन्हें रोक देते
हर आह हर सिसकी इनकी अंतस की नींव को दर्द से हिला देती है
काश उन्हें भी कभी सुनाई दे, जिनकी दी हर पीड़ा हँसकर सहती है

सीने पर पत्थर रख, संसार की रीति निभा माता पिता कन्यादान करते हैं
फ़िर क्यों लोग परियों समान बेटियों पर निस दिन अत्याचार करते हैं
कब तक चलता रहेगा, किस ज़ुल्म पर जाकर ये सिलसिला रुकेगा
क्या कोई और महापुरुष मानवता जगाने धरती पर अवतरित होगा

© सुधा सिंह 💐💐