...

1 views

अंतर्द्वंद
भागती हुई ज़िंदगी और रुका हुआ समय मेरे मन में एक अन्तर्द्वंन्द सा पैदा कर देते हैं और नींद मुझसे किनारा कर लेती है। अब जब जाग ही रहे हैं तो सोचा कि कुछ सोच ही लें। विचारों का सैलाब उमड़ता है और घड़ी के कांटे रुक से जाते हैं। आखिर ये हो क्या रहा है? क्या ये सब सच है, क्या ये जीवन सत्य है, क्या मेरा होना महत्व रखता है? अचानक ही मेरा मन दिन भर की गतिविधियों से ऊपर उठकर एक शून्य का अनुभव करता है। अब सब साफ नजर आ रहा। संभवतः यही सत्य है। स्वतंत्र मन बिरले ही मिलते हैं, दुनिया ने इतने नियम जो बना रखे हैं। ऐसे बोलो, ऐसे चलो, ऐसे खाओ, ऐसे लिखो, ऐसे जियो। सब निश्चित है। इससे तनिक भी डिगे और आप असामाजिक करार कर दिए गए। मनुष्य समाज का अंग है और समाज ही मनुष्य के अस्तित्व का निर्धारक है। बहुत सोचने पर भी पिछली पंक्ति समझ नहीं आई। समझ के कोई लाभ भी नहीं। हम पर उठने वाली हर उँगली एक प्रतिशोध की भावना में जी रही है। कोई दोष नहीं उनका। अब मान लो मैं वैसा बन भी जाऊं, जैसे मुझे होना चाहिए, तब भी कोई खुश नहीं होगा और 'सबसे उचित' बनने के इस असफल और निरर्थक प्रयास में मैं ये भी भूल गया कि आखरी बार घर की रसोई में माँ के पास बैठकर उनका हाल कब पूछा था। आधा घंटा हो गया सोचते और अब मन थोड़ा विद्रोही हो चला है। ये मेरी ज़िंदगी है, मैं चाहे जैसे जियूँ। हाँ जानता हूँ, बहुत कठिनाइयाँ आएंगी आगे, बड़ा दुर्गम होता है जीवन 'अधिकतर' लोगों ले लिए और मुझे परिपक्व होना होगा, पर मैं अपनी शर्तों पर जीना चाहता हूं। अब तक क्या किया, इस बात का कोई महत्व नहीं। मेहनत मुताबिक फल वैसे भी आजकल कहाँ मिलता है। अधिक आवेग मन को शिथिल करता है और मैं अपने असल जीवन में वापस आ जाता हूँ। कल से फिर वही सब। अरे ठीक है, चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान के साथ आगे बढ़ना है। गलत रास्ते पर भी चला, तो भी कहीं न कहीं जरूर पहुंच जाऊंगा। कुछ लोग हैं जो हर दम साथ देंगे। नींद अब दस्तक दे रही और कह रही कि अपनी नहीं तो कम से कम शरीर की सोचो। चलो मान ली तुम्हारी बात। कल सूरज से थोड़ा ज्यादा विटामिन डी लेकर ज्यादा मेहनत करेंगे। कल शायद कोई और नया विचार नींद उड़ा दे और जीवन की नाव थोड़ी आगे बढ़ दे।
© @Supermanreturns