...

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सफर
सफर तो बहुत बाकी अभी,
थम गए हैं कदम क्यूँ
वो जो लगते अपने थे,
हो रहे अब दूर क्यूँ
कौन समझेगा अब इस
आहत मन की पीर को
अंतर्मन की बुझती लौ को
फिर जलायेगा कौन
थम कर मेरी खामोशी को
सुनेगा कौन
मेरे लिये असंभव सा है
फिर लौट कर आना
सफर है अन्तहीन मंज़िल है मुश्किल
चलूँ की शायद
फासले मिट जायें
इस वीराने मे कभी
तूफ़ान आ जाए
लग जाए कश्ती किनारे से
कहीं से ऐसा कोई
पैगाम आ जाए.
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