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उद्दण्ड अश्व
था उद्दण्ड अश्व,न आता किसी केकाबू में,
हानि पहुँचता जो भी आ जाये निकट में।
दूलत्तियाँ मरता,कभी काट लेता वह दांतों से।
बारम्बार रस्सियां तोड़ भाग जाता वह जंगल मे,
शोर मचाता पैर पटकता हर प्रहार में।
हुए विफल सभी उसे काबू करने में,
नाराज थे सब उसके इस आचरण से।
गुस्सा करते घृणा दर्शाते उस अश्व से,
उद्दण्डता बढ़ती ही जाती उस अश्व में।
गोविंद जी भी थे दुखी व परेशान।
बेचना चाहा पर न खरीदा किसी ने,
बिन मोल देना चाहा न लिया किसी ने।
सब ने किया अपनी शक्ति का प्रयोग,
पर किसी ने न समझा अश्व का कोमल मन।
समझा उसे गजानन ने गये निकट उस अश्व के,
किया उसकी शक्ति का सम्मान दिया उसे मान।
बल से न किया काबू न ही किया उसे परेशान,
प्रेम प्रदर्शित कर हुए समर्पित उसके चरण।
अश्व ने भी स्वीकारा गजानन का प्रेम मन,
न की कोई हानि की,किया स्वमेव प्रेम प्रदर्शन।
हुआ चमत्कार आया अश्व में परिवर्तन,
वह करने लगा अब वह प्रेम प्रदर्शन।
गजानन की इस महिमा को नमन,
समंझा उन्होंने उस अश्व का मन।
सिखाया उसे सबसे प्रेम आचरण,
फिर अश्व ने पाया सबसे प्रेम आचरण।
जय गजानन श्री गजानन,
जय गजानन श्री गजानन।
संजीव बल्लाल ८/३/२०२४© BALLAL S