...

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बोझिल है साँसें
बोझिल है साँसे आँखों में कोई ख़्वाब नहीं है,
कशमकश है मन में मंज़र की ताब नहीं है।

हिज़्र के आलम में सीने में धड़कता है शोला,
भीगी हैं पलकें फिर भी कोई सैराब नहीं है।

बिछड़ कर उसने निभाई है ये कौन सी रंजिश,
इस सवाल का किसी के पास जवाब नहीं है।

दिन के उजाले में भी फैला है हर सम्त अंधेरा,
मेरे हिस्से में अब कोई आफ़ताब नहीं है।

मुश्किल है इन बोझिल साँसो का बोझ उठाना,
डसती तन्हाईयों में एक भी पल नायाब नहीं है।