...

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कुदरत का बिगुल सुनो

ध्रुव का पिघलता हिम और बढती सागर की उंचाई...
अॅमेझॉन का जलता जंगल, बढती कुदरत की गरमाई...

धुम्रपान कारखानो का और आग लगी है जंगल में...
पृथ्वी का भविष्य देखो आसमां के लाल मंगल में...

पंछियो सें छत छिनकर अपने घर बनाते चलो...
जंगल को विरान बनाकर और शहर बनाते चलो...

घुसपैठ हमारी सागर में पलपल यूं जारी है...
भितर त्सुनामी पाले बूँद बूँद अब बाघी है...

तंत्रज्ञान का खाद मिला नोटो वाली फसलो को...
नॉस्टालजिया दे रहे हम आने वाली नस्लो को...

दुषीत हवा में घूंटती सांसे और घूंटते हुए जज्बात है...
बोलबाला जिडीपी का, खैर! कुछ दशको की बात है...

मां वसुंधरा जकडी है सरहदो के जाल में...
आक्रोश देखो जरा ज्वालामुखी भुचाल में...

बोलो क्या जी पाओगे अपनी अमानत झोंककर...
खुदको बौना पाओगे कुदरत की दानत देखकर...

सर्वनाश का बिगुल सुनकर अब भी संभल सकते हो...
बडे भाई माफिक सबका हाथ पकड चल सकते हो...

कुदरत तो रास्ता ढूंड लेगी तुम किस ओर जा रहे हो...
अरे! जंगल काटकर अपनी ही अर्थीया सजा रहे हो...
© Ashish Deshmukh