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रमणीय प्रकृति
दृष्टिगत होती है प्रकृति,
चैत्र मास में, पूरे शबाब पर।
अपने सूखे, पुराने, कटे-फटे पत्तों को,
त्याग कर, नए वस्त्र धारण कर लेती।
अहा! मन को कितना प्रफुल्लित कर देता,
आनंद से आत्मविभोर होकर,
खुशी से तन-मन झूम उठता।
जैसे सिक्के के दो होते पहलू,
ठीक उसी प्रकार,
प्रकृति के निखरे रूप को निहारकर,
ऐसा होता है आभास,
जैसे जीवन तो, है
आने जाने का नाम।
जिस जीव ने भी जन्म पाया,
उसे देह त्याग तो करना ही होगा।
ठीक जैसे ही प्रकृति के इस नवरूप रंग को,
दृष्टिगत, होते ही मन खुशी से उठता झूम
पर, धराशाई हुए पीले सूखे झड़ते पत्तों को देख,
ईश्वर की महिमा दृष्टिगत होती।
डॉ अनीता शरण।
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