...

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"पगली की गली"

"सुना उसका नाम बहुत, पर देखा न कभी,
एक रोज़ मैं भी गुज़रा, उस पगली की गली,

मारती वो पत्थर, मच जाती खलबली,
जब छेड़ते थे उसको, कह-कहके पगली,
मैली-मैली जूती, और गुलाबी लाल चुनरी,
जुल्फ़ें उलझी-उलझी, चेहरे पे दिल्लगी,

तार-तार लहँगा, कुर्ती भी फट चली,
एक रोज़ मैं भी गुज़रा, उस पगली की गली,

पूछा एक चाचा से, है कौन ये भली,
बोले तब चाचा, करके याद वो घड़ी,
नैन थे कटार उसके, मदहोश चाल थी,
कभी थी वो हूर-सी, जो आज है पगली,

दिल हजारों फिसले, जब इट्ठलाके वो चली,
एक रोज़ मैं भी गुज़रा, उस पगली की गली,

फिर एक कुमार आया, इसको टकराया,
सफ़र-ए-मोहब्बत पर, दो नज़रें मिलीं,
दिल गँवाया उसने, औरों की जान ली,
पाक मोहब्बत उसकी, बात सबने मान ली,

कितने ही लोगों ने, उसके प्यार की कसम ली,
एक रोज़ मैं भी गुज़रा, उस पगली की गली,

न जाने क्या हुआ, यह किसी को न पता,
फिर रही थी रोती-रोती, बदहवास हाल थी,
वह रोज़ और आज है, न होश, न ख्याल है,
फिरती है मारी-मारी, ये गली वो गली,

एक रोज़ मैं भी गुज़रा, उस पगली की गली।।

ASHOK HARENDRA
© into.the.imagination