A Requiem for Fragments | टुकड़ों का शोकगीत
I stood at the ocean’s edge,
Face-to-face with my reflection.
The waves whispered truths I feared,
Each ripple stealing parts of me.
And I’ve never felt so far from myself before.
सागर के किनारे खड़ा था,
अपनी परछाई से आमने-सामने।
लहरें फुसफुसा रही थीं वो सच, जिनसे मैं डरता था,
हर लहर मुझसे मेरा एक हिस्सा चुरा लेती।
और खुद से इतना दूर पहले कभी महसूस नहीं हुआ।
The mirror holds my gaze,
A canvas of cracks and silver lies.
Do I see myself, or just a shadow—
A stranger wearing the shards of dreams
That once set my soul alight?
आईना मुझे घूरता है,
दरारों और चांदी के झूठ का एक कैनवास।
क्या मैं खुद को देख रहा हूँ, या बस एक परछाईं—
सपनों के टुकड़ों से सजी हुई
एक अनजानी सूरत जो कभी मेरी रूह को जलाया करती थी?
Love once bloomed in fleeting sparks,
Its warmth a fragile, fleeting glow.
We gave away fragments, never the whole,
Falling for the idea, not the essence.
And without the whole, how can we ever truly love?
कभी प्यार झिलमिलाती चिंगारियों में खिला था,
उसकी गर्माहट एक नाज़ुक, अस्थायी रोशनी।
हमने टुकड़े दे दिए, कभी भी पूरा नहीं।
ख्याल से मोहब्बत की, उसकी सच्चाई से नहीं।
और बिना पूरे...