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दर्पण और मैं
#दर्पणप्रतिबिंब

© Nand Gopal Agnihotri
मन दर्पण में देखा खुद को,
फिर दर्पण के सम्मुख खड़ा हुआ।
दोनों में कितना अंतर है,
यही सोच रहा था खड़ा खड़ा।
फिर रह न सका पूछ बैठा,
तू किसको रिझाता है पगले,
क्यों खुद को धोखा देता है।
क्यों खुद से ही छल करता है,
और मन ही मन इतराता है।
वह ऊपर बैठा देख रहा,
रखता सब लेखा-जोखा है।
यह समय किसी का हुआ नहीं,
क्यों भ्रम में है तेरा होगा।
एक दिन ऐसा भी आएगा,
ये रूप तेरा ढल जाएगा।
तेरी कीर्ति सामने आएगी,
तू पड़ा पड़ा पछताएगा।
कोशिश कर मन के दर्पण में,
ऐसा अपना प्रतिबिंब बना,
कोई फर्क न हो तुझमें मुझमें,
पछतावा ना रह जाएगा।