...

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वो भी क्या बचपन था...!!
छोटे - बड़े का न कोई भेद था,
ऊंच- नीच का न कोई द्वेष था,
हर गली अपनी थी,
घर - घर में अपनापन था।
वो भी क्या बचपन था।

कोई डगर सूनी नहीं थी,
हर नज़र पाक थी।
टायर घूमाते- घूमते सारा गांव नाप लिया करते थे,
न फिकर माँ को थी न पिता को डर था।
वो भी क्या बचपन था।

अगर- मगर की परवाह किसे थी,
खेल में भी रिश्तों की बड़ी अहमियत थी।
कभी छिपना छिपना तो कभी मामा- मामा,
बर्फ पानी हो या फिर पारियों का फसाना।
बचपन की लड़ाई तो सिर्फ सांझ तक रहती,
सवेरे तो फिर वही टोलो का संग था
वो भी क्या बचपन था।
कोई काम छोटा या बड़ा नहीं था,
खेल- खेल में हर किरदार को समझना था।
मिट्टी के घरौंदे बनाने वाले कारीगर भी हम थे।
तालाब कि दूरियों को नापने वाले तैराक भी हम थे।
नीम की निमोली आम की तरह बेचने वाले व्यापारी भी हम थे
कभी पेशे से कंडक्टर तो कभी दुकानदार भी हम थे।
न मौसम में इतनी तपन थी,
न राहों में कांटों की खबर थी।
बस्ता लिया और चल दिए,
जूतों की कहां हसरत थी।
कोई खेल बंटा नहीं था,
गुड़ियों से खेलना सिर्फ लड़कियों का शौक नहीं था।
क्रिकेट हो या गिल्ली- डंडा,
हर खेल में लड़के - लड़कियों का संग था।
वो भी क्या बचपन था।

✍️मनीषा मीना