मजदूर भी मजबूर भी
तपती दुपहरी मे भी उनको, रुकने का कहाँ हक़ होता है।
ग़रीबी ओढ़ने वालो को, थकने का कहाँ हक़ होता है।
दर्द बीमारी से लड़ ही लेते, गर भूख से जो लड़ पाते।
आँसू पीने वालों को, ख़ुशी चखने का कहाँ हक़ होता है।
थकान सुला देती इनको, सपनों का कहाँ हक़ होता है।
मज़दूरी करने वालों को जनाब,जीने का कहाँ हक़ होता है।
ग़रीबी ओढ़ने वालो को, थकने का कहाँ हक़ होता है।
दर्द बीमारी से लड़ ही लेते, गर भूख से जो लड़ पाते।
आँसू पीने वालों को, ख़ुशी चखने का कहाँ हक़ होता है।
थकान सुला देती इनको, सपनों का कहाँ हक़ होता है।
मज़दूरी करने वालों को जनाब,जीने का कहाँ हक़ होता है।