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भेंट गुसाईं की,प्रेम भक्त का
वाराणसी का एक गुसाईं था प्रभवित समर्थ की कीर्ति से,
एक संकल्प लिए पहुँचा वह मिलने श्री समर्थ से।
करना चाहता था अर्पित गांजा अपने हाथों से।
सर पर कषाय बांधे बैठा था किनारे वह भीड़ से।
मृग चर्म का लपेटा पीठ पर बैठा निराशा से।
कठिन पूर्ण होना संकल्प मेंरा क्या मुकाबला धनिकों से।
समर्थ को मेरी क्या चिंता,घिरे है भक्तों से।
मनोकामना किससे कहूँ,प्रेम नही किसी को गांजे से।
जिसे जो प्रिय हो,वहीं करता अर्पण प्रेम से।
ऐसे विचार करते वह खड़ा था,दूर भीड़ से।
समर्थ संकल्प जान लिया,जाओ बुलाओ कहा किसी से।
उस गुसाईं को मेरे पास लाओ जो आया वाराणसी से।
गुसाईं हुआ अत्यंत प्रसन्न,अब भेंट होगी समर्थ से।
समर्थ बोले,करता संकल्प देने का और हटता पीछे देने से।
निकालो तीन पुड़िया जो सम्हाली तीन महीनों से।
सुनते ही गुसाईं नें पकडे चरण गदगद वह भरे कंठ से।
समर्थ ने कहा उठो और निकालो पुड़िया झोले से।
लज्जा नही आती हटते पीछे तुम संकल्प से।
इसका सदा सेवन कर कल्याण करे कहा भक्त ने प्रेम से।
बूटी का सदा करे सेवन आप,जिससे न हटूं स्मृति से।
इस बूटी का प्रयोजन नही आपको मन से।
इस भक्त की भक्ति कभी न मिटे आपकी स्मृति से।
कहा गुसाईं से समर्थ ने करेंगे सेवन हम चिलम से।
माता ज़िद पूर्ण करती,करते समर्थ बूटी सेवन तब से।
नियमित करते समर्थ सेवन प्रेम उन्हें भक्त की भक्ति से।
कमल जल में रहता पर दूर रहता जल से।
नियमित सेवन पर भी,समर्थ दूर इस व्यसन से।
संजीव बल्लाल १३/३/२०२४© BALLAL S