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दर्पण बोले—" न पाप हो, न पश्चाताप हो।"
#दर्पणप्रतिबिंब
( Reproducing my old poem)
आज दर्पण ने इक बात कही,
चल मेरे भीतर,चलें दूर कहीं,
निहारा खुद को जब मैंने उसमें,
पाया खुद का साया उसमें!
हाथ पकड़ जो खींचा उसने,
अगले ही पल, मैं था उसमें,
हैरान-परेशां,था मैं खोया-खोया,
अजब थी दुनिया अंदर उसमें!
साये नहीं, वो मनुष्य थे अंदर,
मनुष्य नहीं, थे इंसानी समंदर,
हर चेहरे पर, मानो कोई शाप था,
बुझे-बुझे थे,जैसे पश्चाताप था!
अपने कर्मों में हर शख्स मग्न था,
मानो हमाम में हर कोई नग्न था,
मैं भी तो था, उन सब में शामिल,
कोई रोता, कोई मरता, कोई रुग्ण था!
बहता लहू उनका न कोई देखता,
भूख बहुत थी पर दाना न मिलता,
पुकार-चीत्कार, न था कोई सुनता,
दीवार पर था कोई, सिर पटकता-धुनता!
प्यास बहुत थी पर पानी न मिलता,
चाहता था मैं भी बचना,पर शरीर न हिलता,
क्या मैं भी मर चुका था,
क्या मैं भी आत्मा बन चुका था?!
शक था मुझको—क्या ये कोई नर्क था,
पर मुझको दिखता न कोई फ़र्क था,
ऊंची कुर्सी वाले ने मेरा नाम पुकारा,
समझ गया था-मेरा भी अब बस वही हश्र था!
वो गरजा-"इसको क्यों लाए भाई,
है समय अभी,नहीं है इसकी बारी आई!"
अचानक मानो स्वप्न टूटा,
किसी ने मेरी जबरन बांह छुड़ाई,
जागा मैं जो आंखें मलता,
किरणें उज्ज्वल थीं, समक्ष दर्पण था,
न कोई रोता, न कोई रुग्ण था,
न कोई शाप,न विलाप, न कोई नग्न था!
किंतु दर्पण का संदेश साफ़ था-
"न हो कोई कर्म पश्चाताप का,
न बनना भागी कभी पाप का,
जाओ जग से कर के नेक कमाई,
शुक्र करो!
है समय अभी, नहीं है बारी आई!!"
--विजय कुमार--
© Truly Chambyal
( Reproducing my old poem)
आज दर्पण ने इक बात कही,
चल मेरे भीतर,चलें दूर कहीं,
निहारा खुद को जब मैंने उसमें,
पाया खुद का साया उसमें!
हाथ पकड़ जो खींचा उसने,
अगले ही पल, मैं था उसमें,
हैरान-परेशां,था मैं खोया-खोया,
अजब थी दुनिया अंदर उसमें!
साये नहीं, वो मनुष्य थे अंदर,
मनुष्य नहीं, थे इंसानी समंदर,
हर चेहरे पर, मानो कोई शाप था,
बुझे-बुझे थे,जैसे पश्चाताप था!
अपने कर्मों में हर शख्स मग्न था,
मानो हमाम में हर कोई नग्न था,
मैं भी तो था, उन सब में शामिल,
कोई रोता, कोई मरता, कोई रुग्ण था!
बहता लहू उनका न कोई देखता,
भूख बहुत थी पर दाना न मिलता,
पुकार-चीत्कार, न था कोई सुनता,
दीवार पर था कोई, सिर पटकता-धुनता!
प्यास बहुत थी पर पानी न मिलता,
चाहता था मैं भी बचना,पर शरीर न हिलता,
क्या मैं भी मर चुका था,
क्या मैं भी आत्मा बन चुका था?!
शक था मुझको—क्या ये कोई नर्क था,
पर मुझको दिखता न कोई फ़र्क था,
ऊंची कुर्सी वाले ने मेरा नाम पुकारा,
समझ गया था-मेरा भी अब बस वही हश्र था!
वो गरजा-"इसको क्यों लाए भाई,
है समय अभी,नहीं है इसकी बारी आई!"
अचानक मानो स्वप्न टूटा,
किसी ने मेरी जबरन बांह छुड़ाई,
जागा मैं जो आंखें मलता,
किरणें उज्ज्वल थीं, समक्ष दर्पण था,
न कोई रोता, न कोई रुग्ण था,
न कोई शाप,न विलाप, न कोई नग्न था!
किंतु दर्पण का संदेश साफ़ था-
"न हो कोई कर्म पश्चाताप का,
न बनना भागी कभी पाप का,
जाओ जग से कर के नेक कमाई,
शुक्र करो!
है समय अभी, नहीं है बारी आई!!"
--विजय कुमार--
© Truly Chambyal
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