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🌾तरू की छाया।
तरूवर संग उस बङे हुए
बचपन में जिसकी गुठली
धरा में दबा शान से खङे हुए
कि तरू एक मैंने दी लगाई
छाया में इसकी चैन पा लेंगें
खग संग मानुष सब भाई।।
चपत तप्त सूरज की जब लगती
छाया तरू की बङी मनभावन सजती
चलते थकते पथिक राह के
इस छाया में थिथक थम कर
सहज सरल अविरल हुए।।
छाया की माया में इस
विकल ईश भी मग्न हुए
तपती धरती तपता आकाश
तपती हवा तपता प्रकाश
तरू छांव में सब तृप्त हुए।।
इस तरू की गरज है सबको
इस छांव की तलब है सबको
बिन ईस छांव किधर को जाऐंगें
जल भुन कर कण कण बिखर जाऐंगें
तभी धरा तरू छांव है धारण किए हुए।।
✍राजीव जिया कुमार,
सासाराम,रोहतास,बिहार।
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© rajiv kumar