...

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ताशिर
शिकवा थी ज़माने को हमसे
की हम उनके रंग में ढलते नहीं,
तुम ग़र नदी की हो धार
मैं सागर का खारा पानी ही सही,
धारण किया ख़ुद में रूप अनेक
मैं विक्राल रौद्र हूँ, तो कभी चंचल लहरों सा भी,
बादलों के गर्जन से भी हाथ मिलता
बढ़ कर चूमता तट के पाँव भी,
मैं ख़ुद में ही सीमित साग़र हूँ
चंचल चपल अनिश्चितता का ही ताशीर मैं.
© LivingSpirit