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लगा था
ज़रा रोशनी क्या नाराज़ हुई, मैं अंधेरों से दोस्ती करने लगा था,

दिल को ज़ख्म तो मिलना ही था,बेकदरों का दम भरने लगा था,

मंज़िल भला कैसे हासिल होती,मैं राहों के कंकर से डरने लगा था,

कैसे मुमकिन हैं कोई सच बोल जाये,जब सच ही अदालत में हरने लगा था,
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