...

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मनोदशा
कहने से किसी के हम कब कुछ करते हैं?

हमेशा बस अपने मन की ही सुनते हैं,

फिर भी दुखी हैं,रहते पल पल मरते हैं,

दिखावा निडरता का पर अंदर से डरते हैं,

बस हक़ की लड़ाई हैं,ज़िम्मेदारी के लिए
हम कब झगड़ते हैं?

ऊपरी अडंबर हैं,अब रिश्तों को भी
कब मन से निभाते हैं?

अपने कर्मों और व्यर्थ की चिंता से ही
चैन कहीं ना पाते हैं,

हैरत हैं 'ताज',सब समझकर भी हम
कभी ख़ुद को ना समझाते हैं।
© taj