...

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"दर-ब-दर मुसाफ़िर"
मेरे काम कभी कोई,
आया ही नहीं..!
बहानों के सिवा किसी से,
कुछ पाया ही नहीं..!

हाँ में हाँ मिलना अब,
छोड़ दिया है सबकी मैंने..!
इसलिए किसी को मैं,
कभी भाया ही नहीं..!

भूल जाते हैं कुछ पल में ही,
मरने वालों को ये अपने..!
जैसे ज़िन्दगी भर किसी को,
ख़ुश करने का किरदार निभाया ही नहीं..!

तुम सही सब,
मैं एकलौता ग़लत हूँ..!
मुझे तुम्हारे जैसा व्यवहार करना,
मेरे अपनों ने कभी सिखाया ही नहीं..!

दर-ब-दर मुसाफ़िर की तरह,
भटकता रहा मैं ताउम्र..!
सही पते तक किसी ने,
न जाने क्यों पहुँचाया ही नहीं..!
© SHIVA KANT