काफिलों में गुमशुदा
काफिलों में भी यूं ही अकेला खड़ा था वो कब से?
ज़िन्दगी में थी ना जिसको कोई तलब मोहब्बत से।
दर्द फर्श पर उड़ता था पन्नों में कहीं हर लम्हा।
पहचान हो सकी ना उसकी कभी ख़ुदा के इनायत से।।
वो क्या जाने किसी से दिल लगा कर ख़ुद को हारना?
वो तो...
ज़िन्दगी में थी ना जिसको कोई तलब मोहब्बत से।
दर्द फर्श पर उड़ता था पन्नों में कहीं हर लम्हा।
पहचान हो सकी ना उसकी कभी ख़ुदा के इनायत से।।
वो क्या जाने किसी से दिल लगा कर ख़ुद को हारना?
वो तो...