...

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काफिलों में गुमशुदा
काफिलों में भी यूं ही अकेला खड़ा था वो कब से?
ज़िन्दगी में थी ना जिसको कोई तलब मोहब्बत से।

दर्द फर्श पर उड़ता था पन्नों में कहीं हर लम्हा।
पहचान हो सकी ना उसकी कभी ख़ुदा के इनायत से।।

वो क्या जाने किसी से दिल लगा कर ख़ुद को हारना?
वो तो ख़ामोश था एक अरसे बेदर्द ज़माने के तबियत से।।

सिर्फ़ दांव लगा बैठा कभी जो एहसासों की वर्जिश में।
ताल्लुक़ कभी हुआ कहां उसे ख़ुद की ही हालत से?

अब कोई बेशक दावा करें उसको अपना बताने का।
ज़िंदादिल तू मिलता कहीं अब कहां किसी को जन्नत से।।

कर लिया है यारी तूने भी घने डरावने अंधेरों से।
दिल ना लगे तो कोई क्या करे यकीन ख़ुद की ही अहमियत से।।
© ज़िंदादिल संदीप