...

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अजीब हो जाता है जिस्म !
नपे-तुले, जोर लगा कर चार ही घर में जी हैं,
खूब दौलत लगाई मेहनत भी जमके की है,
अधूरी है रंगत घर की जैसे मेहमान के बिना।
• बहुत अजीब हो जाता है जिस्म, जान के बिना ।।
अपने पहनावे से कोई कुछ भी दिखे चाहे,
नाम, जुबान उर्दू में अपना लिखो चाहे,
मुसलमा, मुसलमा नहीं मगर कुरान के बिना।
• बहुत अजीब हो जाता है जिस्म, जान के बिना ।।
ख्वाब भी प्यारे होते हैं बंदे को औलाद की तरह,
माना जिस्म तूने बनाया है फौलाद की तरह,
बांदा मगर बंदा नहीं अपनी जुबान के बिना।
• बहुत अजीब हो जाता है जिस्म, जान के बिना ।।
© Dharminder Dhiman