...

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कुर्सी
पुरखों से, एक कुर्सी,
जुगाड किए खड़ी है,
जब थक जाता हूं,
रोज बैठ जाता हूं ,
इतमीनान के लिए,
दो माला जाप लेता हूं,
नई ऊर्जा के लिए,

कुर्सी पर बैठने की हैसियत मेरी नहीं,

जब हैसियत मुकम्मल हुई,
देर रात तक वहीं पर,
अक्सर खाना भी वहीं पर,
अधिकतर सो भी जाता हूं,
इतमीनान नहीं,
माला नहीं तो
ऊर्जा नहीं,

इन्द्र मुझे अपनी कुर्सी देनेवाले थे,
अब धरती का इन्द्र लाचार है,
अब तो बड़ी देर हो गई,

कुर्सी ! तू टूट ना जाना,
कभी सो जाऊं तो मना ना करना।
© Aditya N. Dani