...

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प्रेम सौगातें
सोचती हूँ....
सम्भाल कर रख लूँ ये गुलाब
जो तुमने मुझे मुस्कुराते हुए दिया था
जिसे देते वक़्त तुम्हारी उंगलियाँ
हौले से मेरी उंगलियों से टकरा गई थीं

ये चूड़ियाँ....
जो तुम मेरे जन्मदिन पर उपहारस्वरूप लाए थे
और पकड़ाई थीं झिझकते शरमाते हुए
ये कहते हुए कि देखो....
मुझे ये सब खरीदने की समझ नहीं

ये किताब .....
जो तुम मेरी पसन्द की है , जान कर ,
न जाने किस दुकान से खोज कर ले ही आए थे

वो दुपट्टा भी रख लूँ
जिसके छोर से तुम मेरे पास बैठे
बेखयाली से खेल रहे थे

एक तुम्हारा रूमाल भी है मेरे पास
जो उस दिन पार्क की बेंच से उठते हुए
तुम्हारी जेब से गिर गया था
और तुम्हें पता भी नहीं चला था
मैंने वो चुपके से उठा कर मुट्ठी में भींच लिया था....

ऐसी कई सौगातें और भी हैं
जो हमारे साथ जिए उस सुन्दर वक़्त
और हमारे प्रेम की  निशानी हैं
पर तुम्हारे प्रेम की सबसे बड़ी निशानी तो
खुद मैं हूँ....
जिसे तुमने टूट कर प्रेम किया
तो क्यों न मैं खुद को ही संभालूं सहेजूं
जैसे तुम मुझे सम्भालते थे

पूनम अग्रवाल








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