...

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डर है मुझको
डर है मुझको, मैं खो दूंगी खुदको,
इसलिए दुनिया की नज़रों से बच रही हूं।
हवाओं से भी अब सीहरने लगी हूं,
किसी की आहटें सुन, चीखने लगी हूं,
हसरतों से अपनी, खुद लड़ रही हूं,
हर बात पर अब भड़क रही हूं,
मंजिलों से भी अपनी भटक रही हूं,
नहीं जानती मैं ऐसा क्यों कर रही हूं।
सूरज की लालिमा से जलने लगी हूं,
मोम सी पिघल, मिट्टी में मिलने लगी हूं,
बदन टूट कर, जमीन पर बिखरा पड़ा है,
समेटने को भी उसको, हाथ पीछे करने लगी हूं,
कदम आगे बढ़ाए नहीं जा रहे,
मूड मूड कर, किसी अपने को ढूंढ रही हूं।
कोशिशें करती हूं कई, खुद को समझाने की,
की ना आए वो बात में, बेकार जमाने की,
हर चेहरे में ना ढूंढ उस एक शक्स को,
जो करता है, तार - तार हर बार मेरे हृदय को,
ना आना अब बातों में उसकी,
लाखों की महफ़िल की है गिनती उसकी,
जानकर भी सब, बार बार टूटने को सज्ज हूं।
सन्नाटे की हलचल समझने लगी हूं,
हर चेहरे के पीछे के सच से रूबरू हुए हूं,
बुराई भी अब मुझे सही लगने लगी है,
कांटों से भरी राह भी, फूलों की लगती है,
किताबों में, गुलाबों की जगह, फटे पन्नों ने ली है,
मेरी बोलती आंखों की जगह चुप्पी ने ली है,
शांत लहरों की बातें पढ़ने लगी हूं।
हां खो तो रही हूं खुदको,
पर शायद अब मैं, मौत से मिलने लगी हूं।

© a_girl_with_magical_pen