...

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जीवन केंद्र
एक केंद्र पर स्थिर हुआ जीवन,
अनेक राहों की दिशा बताता।
हर राह एक मंज़िल दिलाती,
पर रह रह कर केंद्र पर मैं ख़ुद को पाता।
बहुत कुछ है करने को और देखने को,
पर क्या देखें,क्या करें,समंझ न आता मुझको।
बढ़ता मैं अपने हाथ थाम लो कोई उसे,
कुछ देर साथ मिलता,फिर स्पर्श न उनका हो पाता।
हाथों की दिशा,पैरों की चाल,नज़रों का लक्ष्य एक नही,
अब जो हाथ आया थाम लूं,जिधर ले चले पैर मेरे।
जिसे देख देख बीता यह जीवन उसे ही नज़रों में भर लूं,
क्या क्या कर लूं अब एक केंद्र पर स्थिर मेरा मेरा जीवन।
संजीव बल्लाल ३०/४/२०२४© BALLAL S