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मां कहती थी घोड़ा
रंग बिरंगी थी सपनों की गोटी
छूप छुप खाया करते थे_ एक दूजे की रोटी।
आंगन छत_ छत से चौबारा
सवाल सवालों के जवाब थे_दुनिया उतनी छोटी।
चख चख कर देखा था ,पानी मीठा आंसू खारा
होठ खोलने पर मिलती थी, हाथ छीलती सोटी।
काम हुआ कि दौड़ा_ मां कहती थी घोड़ा
कच्चे दिल के अरमानों की भरदी डायरी मोटी।
प्यार से देखा मर मिटते थे, मैं दिया वो बाती
दुश्मन बाहों में लिपटे दोस्त थे बिन पेंदे की लोटी।
सांझ हुई की पलकें बोझिल दुनिया सारी सोती
हाय जवानी ने बचपन की कर दी बोटी बोटी।।
© मनोज कुमार
छूप छुप खाया करते थे_ एक दूजे की रोटी।
आंगन छत_ छत से चौबारा
सवाल सवालों के जवाब थे_दुनिया उतनी छोटी।
चख चख कर देखा था ,पानी मीठा आंसू खारा
होठ खोलने पर मिलती थी, हाथ छीलती सोटी।
काम हुआ कि दौड़ा_ मां कहती थी घोड़ा
कच्चे दिल के अरमानों की भरदी डायरी मोटी।
प्यार से देखा मर मिटते थे, मैं दिया वो बाती
दुश्मन बाहों में लिपटे दोस्त थे बिन पेंदे की लोटी।
सांझ हुई की पलकें बोझिल दुनिया सारी सोती
हाय जवानी ने बचपन की कर दी बोटी बोटी।।
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