...

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मैं तुम्हें लिखती गई
मैं तुम्हें लिखती गई
तुम मगर अनपढ़ से रहे।

मैं गुम तुम्हारे ख्यालों में रही
तुम मेरी शख्शियत से बचते रहे ।

फिक्र ज़माने के उतार चढ़ाव की तुम्हें
मेरे जज्बातों से सदा बेफिक्र रहे।

तुम्हें ताकना पसंद स्क्रीन को रात दिन
मेरे चेहरे की रंगत से नावाकिफ ही रहे ।

मैं भरती रही रंग तुम्हारे अक्स में
तुम मेरे रंगों को बेरंग करते रहे।

मैं उलझी रही तुम्हें सुलझाने में
तुम उलझा कर मुझे बड़े इत्मीनान से रहे।
© Geeta Dhulia